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करे अपनी हर इच्छा पूरी "गुप्त सप्तशती" के बीज मंत्रो द्वारा

  • Writer: Astro Mahesh Jyotishacharya Guru ji
    Astro Mahesh Jyotishacharya Guru ji
  • Oct 15, 2018
  • 4 min read

  सात सौ मन्त्रों की ‘श्री दुर्गा सप्तशती, का पाठ करने से साधकों का जैसा कल्याण होता है, वैसा-ही कल्याणकारी इसका पाठ है। यह ‘गुप्त-सप्तशती’ प्रचुर मन्त्र-बीजों के होने से आत्म-कल्याणेछुक साधकों के लिए अमोघ फल-प्रद है। इसके पाठ का क्रम इस प्रकार है। प्रारम्भ में  "कुञ्जिका-स्तोत्र" "गुप्त सप्तशती" "स्तवन" कुञ्जिका-स्तोत्र अथवा सिद्धकुञ्जिकास्तोत्रम् ॥ ।। श्री गणेशाय नमः ।। ॐ अस्य श्रीकुञ्जिकास्तोत्रमन्त्रस्य सदाशिव ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीत्रिगुणात्मिका देवता, ॐ ऐं बीजं, ॐ ह्रीं शक्तिः, ॐ क्लीं कीलकम्, मम सर्वाभीष्टसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः । शिव उवाच श्रृणु देवि प्रवक्ष्यामि कुञ्जिकास्तोत्रमुत्तमम्‌। येन मन्त्रप्रभावेण चण्डीजापः शुभो भवेत्‌॥1॥ न कवचं नार्गलास्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम्‌। न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासो न च वार्चनम्‌॥2॥ कुञ्जिकापाठमात्रेण दुर्गापाठफलं लभेत्‌। अति गुह्यतरं देवि देवानामपि दुर्लभम्‌॥3॥ गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरिव पार्वति। मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम्‌। पाठमात्रेण संसिद्ध्‌येत् कुञ्जिकास्तोत्रमुत्तमम्‌ ॥4॥ अथ मंत्र ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। ॐ ग्लौ हुं क्लीं जूं सः ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा ॥ इति मंत्रः॥ नमस्ते रुद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनि। नमः कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषामर्दिनि ॥1॥ नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भासुरघातिनि ॥2॥ जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरुष्व मे। ऐंकारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका॥3॥ क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोऽस्तु ते। चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी॥4॥ विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मंत्ररूपिणी ॥5॥ धां धीं धू धूर्जटेः पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी। क्रां क्रीं क्रूं कालिका देविशां शीं शूं मे शुभं कुरु॥6॥ हुं हु हुंकाररूपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी। भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नमः॥7॥ अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा॥ पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा॥8॥ सां सीं सूं सप्तशती देव्या मंत्रसिद्धिंकुरुष्व मे॥ इदं तु कुञ्जिकास्तोत्रं मंत्रजागर्तिहेतवे। अभक्ते नैव दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वति॥ यस्तु कुंजिकया देविहीनां सप्तशतीं पठेत्‌। न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा॥ । इति श्रीरुद्रयामले गौरीतंत्रे शिवपार्वतीसंवादे कुंजिकास्तोत्रं संपूर्णम्‌ ।

आचार्य महेश भारद्वाज शास्त्री

ज्योतिष अनुसंधान केन्द्र रजि.पानीपत गुप्त-सप्तशती ॐ ब्रीं-ब्रीं-ब्रीं वेणु-हस्ते, स्तुत-सुर-बटुकैर्हां गणेशस्य माता। स्वानन्दे नन्द-रुपे, अनहत-निरते, मुक्तिदे मुक्ति-मार्गे।। हंसः सोहं विशाले, वलय-गति-हसे, सिद्ध-देवी समस्ता। हीं-हीं-हीं सिद्ध-लोके, कच-रुचि-विपुले, वीर-भद्रे नमस्ते।।1।। ॐ हींकारोच्चारयन्ती, मम हरति भयं, चण्ड-मुण्डौ प्रचण्डे। खां-खां-खां खड्ग-पाणे, ध्रक-ध्रक ध्रकिते, उग्र-रुपे स्वरुपे।। हुँ-हुँ हुँकांर-नादे, गगन-भुवि-तले, व्यापिनी व्योम-रुपे। हं-हं हंकार-नादे, सुर-गण-नमिते, चण्ड-रुपे नमस्ते।।2।। ऐं लोके कीर्तयन्ती, मम हरतु भयं, राक्षसान् हन्यमाने। घ्रां-घ्रां-घ्रां घोर-रुपे, घघ-घघ-घटिते, घर्घरे घोर-रावे।। निर्मांसे काक-जंघे, घसित-नख-नखा, धूम्र-नेत्रे त्रि-नेत्रे। हस्ताब्जे शूल-मुण्डे, कुल-कुल ककुले, सिद्ध-हस्ते नमस्ते।।3।। ॐ क्रीं-क्रीं-क्रीं ऐं कुमारी, कुह-कुह-मखिले, कोकिलेनानुरागे। मुद्रा-संज्ञ-त्रि-रेखा, कुरु-कुरु सततं, श्री महा-मारि गुह्ये।। तेजांगे सिद्धि-नाथे, मन-पवन-चले, नैव आज्ञा-निधाने। ऐंकारे रात्रि-मध्ये, स्वपित-पशु-जने, तत्र कान्ते नमस्ते।।4।। ॐ व्रां-व्रीं-व्रूं व्रैं कवित्वे, दहन-पुर-गते रुक्मि-रुपेण चक्रे। त्रिः-शक्तया, युक्त-वर्णादिक, कर-नमिते, दादिवं पूर्व-वर्णे।। ह्रीं-स्थाने काम-राजे, ज्वल-ज्वल ज्वलिते, कोशिनि कोश-पत्रे। स्वच्छन्दे कष्ट-नाशे, सुर-वर-वपुषे, गुह्य-मुण्डे नमस्ते।।5।। ॐ घ्रां-घ्रीं-घ्रूं घोर-तुण्डे, घघ-घघ घघघे घर्घरान्याङि्घ्र-घोषे। ह्रीं क्रीं द्रूं द्रोञ्च-चक्रे, रर-रर-रमिते, सर्व-ज्ञाने प्रधाने।। द्रीं तीर्थेषु च ज्येष्ठे, जुग-जुग जजुगे म्लीं पदे काल-मुण्डे। सर्वांगे रक्त-धारा-मथन-कर-वरे, वज्र-दण्डे नमस्ते।।6।। ॐ क्रां क्रीं क्रूं वाम-नमिते, गगन गड-गडे गुह्य-योनि-स्वरुपे। वज्रांगे, वज्र-हस्ते, सुर-पति-वरदे, मत्त-मातंग-रुढे।। स्वस्तेजे, शुद्ध-देहे, लल-लल-ललिते, छेदिते पाश-जाले। किण्डल्याकार-रुपे, वृष वृषभ-ध्वजे, ऐन्द्रि मातर्नमस्ते।।7।। ॐ हुँ हुँ हुंकार-नादे, विषमवश-करे, यक्ष-वैताल-नाथे। सु-सिद्धयर्थे सु-सिद्धैः, ठठ-ठठ-ठठठः, सर्व-भक्षे प्रचण्डे।। जूं सः सौं शान्ति-कर्मेऽमृत-मृत-हरे, निःसमेसं समुद्रे। देवि, त्वं साधकानां, भव-भव वरदे, भद्र-काली नमस्ते।।8।। ब्रह्माणी वैष्णवी त्वं, त्वमसि बहुचरा, त्वं वराह-स्वरुपा। त्वं ऐन्द्री त्वं कुबेरी, त्वमसि च जननी, त्वं कुमारी महेन्द्री।। ऐं ह्रीं क्लींकार-भूते, वितल-तल-तले, भू-तले स्वर्ग-मार्गे। पाताले शैल-श्रृंगे, हरि-हर-भुवने, सिद्ध-चण्डी नमस्ते।।9।। हं लं क्षं शौण्डि-रुपे, शमित भव-भये, सर्व-विघ्नान्त-विघ्ने। गां गीं गूं गैं षडंगे, गगन-गति-गते, सिद्धिदे सिद्ध-साध्ये।। वं क्रं मुद्रा हिमांशोर्प्रहसति-वदने, त्र्यक्षरे ह्सैं निनादे। हां हूं गां गीं गणेशी, गज-मुख-जननी, त्वां महेशीं नमामि।।10।। 

स्तवन या देवी खड्ग-हस्ता, सकल-जन-पदा, व्यापिनी विशऽव-दुर्गा। श्यामांगी शुक्ल-पाशाब्दि जगण-गणिता, ब्रह्म-देहार्ध-वासा।। ज्ञानानां साधयन्ती, तिमिर-विरहिता, ज्ञान-दिव्य-प्रबोधा। सा देवी, दिव्य-मूर्तिर्प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।।1।। ॐ हां हीं हूं वर्म-युक्ते, शव-गमन-गतिर्भीषणे भीम-वक्त्रे। क्रां क्रीं क्रूं क्रोध-मूर्तिर्विकृत-स्तन-मुखे, रौद्र-दंष्ट्रा-कराले।। कं कं कंकाल-धारी भ्रमप्ति, जगदिदं भक्षयन्ती ग्रसन्ती- हुंकारोच्चारयन्ती प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।।2।। ॐ ह्रां ह्रीं हूं रुद्र-रुपे, त्रिभुवन-नमिते, पाश-हस्ते त्रि-नेत्रे। रां रीं रुं रंगे किले किलित रवा, शूल-हस्ते प्रचण्डे।। लां लीं लूं लम्ब-जिह्वे हसति, कह-कहा शुद्ध-घोराट्ट-हासैः। कंकाली काल-रात्रिः प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।।3।। ॐ घ्रां घ्रीं घ्रूं घोर-रुपे घघ-घघ-घटिते घर्घराराव घोरे। निमाँसे शुष्क-जंघे पिबति नर-वसा धूम्र-धूम्रायमाने।। ॐ द्रां द्रीं द्रूं द्रावयन्ती, सकल-भुवि-तले, यक्ष-गन्धर्व-नागान्। क्षां क्षीं क्षूं क्षोभयन्ती प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।4।। ॐ भ्रां भ्रीं भ्रूं भद्र-काली, हरि-हर-नमिते, रुद्र-मूर्ते विकर्णे। चन्द्रादित्यौ च कर्णौ, शशि-मुकुट-शिरो वेष्ठितां केतु-मालाम्।। स्त्रक्-सर्व-चोरगेन्द्रा शशि-करण-निभा तारकाः हार-कण्ठे। सा देवी दिव्य-मूर्तिः, प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।5।। ॐ खं-खं-खं खड्ग-हस्ते, वर-कनक-निभे सूर्य-कान्ति-स्वतेजा। विद्युज्ज्वालावलीनां, भव-निशित महा-कर्त्रिका दक्षिणेन।। वामे हस्ते कपालं, वर-विमल-सुरा-पूरितं धारयन्ती। सा देवी दिव्य-मूर्तिः प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।6।। ॐ हुँ हुँ फट् काल-रात्रीं पुर-सुर-मथनीं धूम्र-मारी कुमारी। ह्रां ह्रीं ह्रूं हन्ति दुष्टान् कलित किल-किला शब्द अट्टाट्टहासे।। हा-हा भूत-प्रभूते, किल-किलित-मुखा, कीलयन्ती ग्रसन्ती। हुंकारोच्चारयन्ती प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।7।। ॐ ह्रीं श्रीं क्रीं कपालीं परिजन-सहिता चण्डि चामुण्डा-नित्ये। रं-रं रंकार-शब्दे शशि-कर-धवले काल-कूटे दुरन्ते।। हुँ हुँ हुंकार-कारि सुर-गण-नमिते, काल-कारी विकारी। त्र्यैलोक्यं वश्य-कारी, प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।8।। वन्दे दण्ड-प्रचण्डा डमरु-डिमि-डिमा, घण्ट टंकार-नादे। नृत्यन्ती ताण्डवैषा थथ-थइ विभवैर्निर्मला मन्त्र-माला।। रुक्षौ कुक्षौ वहन्ती, खर-खरिता रवा चार्चिनि प्रेत-माला। उच्चैस्तैश्चाट्टहासै, हह हसित रवा, चर्म-मुण्डा प्रचण्डे।।9।। ॐ त्वं ब्राह्मी त्वं च रौद्री स च शिखि-गमना त्वं च देवी कुमारी। त्वं चक्री चक्र-हासा घुर-घुरित रवा, त्वं वराह-स्वरुपा।। रौद्रे त्वं चर्म-मुण्डा सकल-भुवि-तले संस्थिते स्वर्ग-मार्गे। पाताले शैल-श्रृंगे हरि-हर-नमिते देवि चण्डी नमस्ते।।10।। रक्ष त्वं मुण्ड-धारी गिरि-गुह-विवरे निर्झरे पर्वते वा। संग्रामे शत्रु-मध्ये विश विषम-विषे संकटे कुत्सिते वा।। व्याघ्रे चौरे च सर्पेऽप्युदधि-भुवि-तले वह्नि-मध्ये च दुर्गे। रक्षेत् सा दिव्य-मूर्तिः प्रदहतु दुरितं मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।।11।। इत्येवं बीज-मन्त्रैः स्तवनमति-शिवं पातक-व्याधि-नाशनम्। प्रत्यक्षं दिव्य-रुपं ग्रह-गण-मथनं मर्दनं शाकिनीनाम्।। इत्येवं वेद-वेद्यं सकल-भय-हरं मन्त्र-शक्तिश्च नित्यम्। मन्त्राणां स्तोत्रकं यः पठति स लभते प्रार्थितां मन्त्र-सिद्धिम्।।12।। चं-चं-चं चन्द्र-हासा चचम चम-चमा चातुरी चित्त-केशी। यं-यं-यं योग-माया जननि जग-हिता योगिनी योग-रुपा।। डं-डं-डं डाकिनीनां डमरुक-सहिता दोल हिण्डोल डिम्भा। रं-रं-रं रक्त-वस्त्रा सरसिज-नयना पातु मां देवि दुर्गा।।13।।

 
 
 

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