श्रद्धा युक्त किया गया श्राद्ध ही पितृऋण से मुक्ति देता है ।
- Astro Mahesh Jyotishacharya Guru ji
- Sep 8, 2017
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श्राद्ध पक्ष (कनागत) इस वर्ष 6 सितंबर 2017 को पूर्णिमा तिथि के दिन से श्राद्ध पक्ष (कनागत) आरंभ होगा . पितृ पक्ष का अन्तिम दिन 20 सितंबर 2017 सर्वपित्रू अमावस्या या महालय अमावस्या के नाम से जाना जाता है। पितृ पक्ष में महालय अमावस्या सबसे मुख्य दिन होता है। 13 सितंबर दिन बुधवार को महालक्ष्मी व्रत, पुत्रजीविका (भादों मास) की पूर्णिमा से प्रारंभ होकर आश्विन मास की अमावस्या तक कुल सोलह तिथियां श्राद्ध पक्ष की होती है। इस पक्ष में सूर्य कन्या राशि में होता है। इसीलिए इस पक्ष को कन्यागत अथवा कनागत भी कहा जाात है। श्राद्ध का ज्योतिषीय महत्त्व की अपेक्षा धार्मिक महत्व अधिक है क्योंकि यह हमारी धार्मिक आस्था से जुड़ा हुआ है। पितृलोक के स्वामी अर्यमा सभी मृत (आत्मा) प्राणियों को अपने-अपने स्थान पर श्राद्ध का अवसर प्रदान करते हैं। आश्विन कृष्ण पक्ष में जब सूर्य कन्या राशि पर गोचर कर रहा हो, तब पितरों के निमित्त श्रद्धापूर्वक किया गया दान, तर्पण, भोजन पिण्ड आदि उन्हें मिलता है। जिस तिथि में जिस पूर्वज का स्वर्गवास हुआ हो उसी तिथि को उनका श्राद्ध किया जाता है जिनकी परलोक गमन तिथि ज्ञान न हो, उन सबका श्राद्ध अमावस्या को किया जाता है। पुराण और स्मृतिग्रंथों के अनुसार श्राद्ध कौन कर सकता है :- किसी भी मृतक के ‘अन्तिम संस्कार’ और श्राद्धकर्म की व्यवस्था के लिए प्राचीन वैदिक ग्रन्थ ‘गरुड़पुराण’ में कौन-कौन से सदस्य पुत्र के नहीं होने पर श्राद्ध कर सकते है, उसका उल्लेख अध्याय ग्यारह के श्लोक सख्या- 11, 12, 13 और 14 में विस्तार से किया गया है, जैसे- पुत्राभावे वधु कूर्यात ..भार्याभावे च सोदनः। शिष्यो वा ब्राह्मणः सपिण्डो वा समाचरेत॥ ज्येष्ठस्य वा कनिष्ठस्य भ्रातृःपुत्रश्चः पौत्रके। श्राध्यामात्रदिकम कार्य पु.त्रहीनेत खगः॥ अर्थात “ज्येष्ठ पुत्र या कनिष्ठ पुत्र के अभाव में बहू, पत्नी को श्राद्ध करने का अधिकार है। इसमें ज्येष्ठ पुत्री या एकमात्र पुत्री भी शामिल है। अगर पत्नी भी जीवित न हो तो सगा भाई अथवा भतीजा, भानजा, नाती, पोता आदि कोई भी यह कर सकता है। इन सबके अभाव में शिष्य, मित्र, कोई भी रिश्तेदार अथवा कुल पुरोहित मृतक का श्राद्ध कर सकता है। इस प्रकार परिवार के पुरुष सदस्य के अभाव में कोई भी महिला सदस्य व्रत लेकर पितरों का श्राद्ध व तर्पण और तिलांजली देकर मोक्ष कामना कर सकती है। अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य :- जिन व्यक्तियों की सामान्य मृत्यु चतुर्दशी तिथि को हुई हो, उनका श्राद्ध केवल पितृ पक्ष की त्रयोदशी अथवा अमावस्या को किया जाता है। जिन व्यक्तियों की अकाल-मृत्यु (दुर्घटना, सर्पदंश, हत्या, आत्महत्या आदि) हुई हो, उनका श्राद्ध केवल चतुर्दशी तिथि को ही किया जाता है। सुहागिन स्त्रियों का श्राद्ध केवल नवमी को ही किया जाता है। नवमी तिथि माता के श्राद्ध के लिए भी उत्तम है। संन्यासी पितृगणों का श्राद्ध केवल द्वादशी को किया जाता है। पूर्णिमा को मृत्यु प्राप्त व्यक्ति का श्राद्ध केवल भाद्रपद शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा अथवा आश्विन में कृष्ण पक्ष की अमावस्या को किया जाता है। नाना-नानी का श्राद्ध केवल आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को किया जाता है। पितरों के श्राद्ध के लिए ‘गया’ को सर्वोत्तम माना गया है, इसे “तीर्थों का प्राण” तथा “पाँचवा धाम” भी कहते है। माता के श्राद्ध के लिए काठियावाड़ में ‘सिद्धपुर’ को अत्यन्त फलदायक माना गया है। इस स्थान को ‘मातृगया’ के नाम से भी जाना जाता है। गया में पिता का श्राद्ध करने से पितृऋण से तथा सिद्धपुर में माता का श्राद्ध करने से मातृऋण से सदा-सर्वदा के लिए मुक्ति प्राप्त होती है। श्राद्ध में आमंत्रित ब्राह्मण के पैर धोकर आदर सहित आसन पर बैठाना चाहिए तथा तर्जनी से चंदन-तिलक लगाना चाहिए। श्राद्धकर्म में अधिक से अधिक तीन ब्राह्मण पर्याप्त माने गये हैं। श्राद्ध के लिए बने पकवान तैयार होने पर एक थाली में पाँच जगह थोड़े-थोड़े सभी पकवान परोसकर हाथ में जल, अक्षत, पुष्प, चन्दन, तिल ले कर पंचबलि (गाय, कुत्ता, कौआ, देवता, पिपीलिका) के लिए संकल्प करना चाहिए। पंचबलि निकालकर कौआ के निमित्त निकाला गया अन्न कौआ को, कुत्ते का अन्न कुत्ते को तथा अन्य सभी अन्न गाय को देना चाहिए। तत्पश्चात् ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। ब्राह्मण भोजन के पश्चात उन्हें अन्न, वस्त्र, ताम्बूल (पान का बीड़ा) एवं दक्षिणा आदि देकर तिलक कर चरणस्पर्श करना चाहिए। ब्राह्मणों के प्रस्थान उपरान्त परिवार सहित स्वयं भी भोजन करना चाहिए। श्राद्ध के लिए शालीन, श्रेष्ठ गुणों से युक्त, शास्त्रों के ज्ञाता तथा तीन पीढि़यों से विख्यात ब्राह्मण का ही चयन करना चाहिए। योग्य ब्राह्मण के अभाव में भानजे, दौहित्र, दामाद, नाना, मामा, साले आदि को आमंत्रित किया जा सकता है। श्राद्ध के लिए आमंत्रित ब्राह्मण की जगह किसी अन्य को नहीं खिलाना चाहिए। श्राद्धभोक्ता को भी प्रथम निमंत्रण को त्यागकर किसी अन्य जगह नहीं जाना चाहिए। भोजन करते समय ब्राह्मण को मौन धारण कर भोजन करना चाहिए तथा हाथ के संकेत द्वारा अपनी इच्छा व्यक्त करनी चाहिए। विकलांग अथवा अधिक अंगों वाला ब्राह्मण श्राद्ध के लिए वर्जित है। श्राद्धकर्ता को सम्पूर्ण पितृ पक्ष में दातौन करना, पान खाना, तेल लगाना, औषध-सेवन, क्षौरकर्म (मुण्ड़न एवं हजामत) मैथुन-क्रिया (स्त्री-प्रसंग), पराये का अन्न खाना, यात्रा करना, क्रोध करना एवं श्राद्धकर्म में शीघ्रता वर्जित है। माना जाता है कि पितृ पक्ष में मैथुन (रति-क्रीड़ा) करने से पितरों को वीर्यपान करना पड़ता है। श्राद्धकर्ता को प्रतिदिन पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए स्नान के बाद तर्पण करना चाहिए। श्राद्धकर्म में दौहित्र (पुत्री का पुत्र), कुतप (मध्यान्हः का समय), काले तिल एवं कुश अत्यन्त पवित्र माने गये है। संध्या और रात्रि के समय श्राद्ध नहीं करना चाहिए, किंतु ग्रहण काल में रात्रि को भी श्राद्ध किया जा सकता है। गया, गंगा, प्रयाग, कुरुक्षेत्र तथा अन्य प्रमुख तीर्थों में श्राद्ध करने से पितर सर्वदा सन्तुष्ट रहते हैं। श्राद्धकर्म में श्रद्धा, शुद्धता, स्वच्छता एवं पवित्रता पर विशेष ध्यान देना चाहिए, इनके अभाव में श्राद्ध निष्फल हो जाता है। श्राद्धकर्म से पितरों को शांति एवं मोक्ष की प्राप्ति होती है तथा प्रसन्न एवं तृप्त पितरों के आर्शीवाद से हमें सुख, समृद्धि, सौभाग्य, आरोग्य तथा आनन्द की प्राप्ति होती है ध्यान रखने योग्य तथ्य :- श्राद्धकर्म में कुछ विशेष बातों का ध्यान रखा जाता है, जैसे- श्राद्ध के दिन पवित्र भाव से पितरों के लिए भोजन बनवाएँ और श्राद्ध कर्म सम्पन्न करें। मध्याह्न में कुश के आसन पर स्वयं बैठें और ब्राह्मण को भी बिठाएँ। एक थाली में गाय, कुत्ता और कौवे के लिए भोजन रखें। दूसरी थाली में पितरों के लिये भोजन रखें। इन दोनों थाली में भोजन समान ही रहेगा। सबसे पहले एक-एक करके गौ, कुत्ता और कौवे के लिए अंशदान करें और उसके बाद अपने पितरों का स्मरण करते हुए निम्न मंत्र का तीन बार जाप करें- “ॐ देवाभ्य: पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च। नम: स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव भवन्तु ते।।” यदि उक्त विधि को करना किसी के लिए संभव न हो, तब वह जल को पात्र में काले तिल डालकर दक्षिण दिशा की ओर मुँह करके तर्पण कर सकता है। यदि घर में कोई भोजन बनाने वाला न हो, तो फल और मिष्ठान आदि का दान कर सकते हैं। श्राद्ध में श्रृद्धापूर्वक पितरों को जो भी वस्तु उचित काल या स्थान पर विधि द्वारा ब्राह्मणों को दी जाती है। इस सबका उल्लेख ब्रह्म पुराण में मिलता है। यह एक ऐसा माध्यम जिससे पितरों को तृप्ति के लिए भोजन दिया जाता है। पिण्ड रूप में पितरों को दिया गया भोजन श्राद्ध का अहम हिस्सा माना जाता है। कब करना चाहिए श्राद्ध श्राद्ध करने का सभी का अपना एक समय होता है। श्राद्ध मृत परिजनों को उनकी मृत्यु की तिथि पर श्रद्धापूर्वक श्राद्ध देने की विधि है। उदाहरण के तौर पर अगर किसी परिजन की मृत्यु एकादशी को हुई है तो उनका श्राद्ध एकादशी के दिन ही किया जाएगा। इसी प्रकार अन्य तिथियों के हिसाब से किया जाता है। - यदि पिता और माता दोनों ही नहीं हैं तो पिता का श्राद्ध अष्टमी के दिन और माता का नवमी के दिन किया जाएगा। * जिन लोगों की अकाल मृत्यु हुई यानि कि किसी दुर्घटना या आत्महत्या के कारण हुई हो तो उनका श्राद्ध चतुर्दशी के दिन होता है। * जो व्यक्ति अपने जीवन काल में साधु और संन्यासी रहा हो तो उनका श्राद्ध द्वाद्वशी के दिन किया जाता है। * जिन लोगों को अपने पितरों के मरने की तिथि याद नहीं रहती, उनका श्राद्ध अमावस्या के दिन किया जाता है। इसे सर्व पितृ श्राद्ध कहा जाता है। श्राद्ध या पिन्डदान कितने प्रकार के है श्राद्ध या पिन्डदान क्यो करना चाहिए श्राद्ध या पिन्डदान के महत्व विषय के लिए अवश्य पढ़े पितरों की संतुष्टि के उद्देश्य से श्रद्धापूर्वक किये जाने वाले तर्पर्ण, ब्राह्मण भोजन, दान आदि कर्मों को श्राद्ध कहा जाता है. इसे पितृयज्ञ भी कहते हैं. श्राद्ध के द्वारा व्यक्ति पितृऋण से मुक्त होता है और पितरों को संतुष्ट करके स्वयं की मुक्ति के मार्ग पर बढ़ता है. श्राद्ध या पिन्डदान दोनो एक ही शब्द के दो पहलू है पिन्डदान शब्द का अर्थ है अन्न को पिन्डाकार मे बनाकार पितर को श्रद्धा पूर्वक अर्पण करना इसी को पिन्डदान कहते है दझिण भारतीय पिन्डदान को श्राद्ध कहते है श्राद्ध के प्रकार शास्त्रों में श्राद्ध के निम्नलिखित प्रकार बताये गए हैं - 1. नित्य श्राद्ध : वे श्राद्ध जो नित्य-प्रतिदिन किये जाते हैं, उन्हें नित्य श्राद्ध कहते हैं. इसमें विश्वदेव नहीं होते हैं. 2. नैमित्तिक या एकोदिष्ट श्राद्ध : वह श्राद्ध जो केवल एक व्यक्ति के उद्देश्य से किया जाता है. यह भी विश्वदेव रहित होता है. इसमें आवाहन तथा अग्रौकरण की क्रिया नहीं होती है. एक पिण्ड, एक अर्ध्य, एक पवित्रक होता है. 3. काम्य श्राद्ध : वह श्राद्ध जो किसी कामना की पूर्ती के उद्देश्य से किया जाए, काम्य श्राद्ध कहलाता है. 4. वृद्धि (नान्दी) श्राद्ध : मांगलिक कार्यों ( पुत्रजन्म, विवाह आदि कार्य) में जो श्राद्ध किया जाता है, उसे वृद्धि श्राद्ध या नान्दी श्राद्ध कहते हैं. 5. पावर्ण श्राद्ध : पावर्ण श्राद्ध वे हैं जो भाद्रपद कृष्ण पक्ष के पितृपक्ष, प्रत्येक मास की अमावस्या आदि पर किये जाते हैं. ये विश्वदेव सहित श्राद्ध हैं. 6. सपिण्डन श्राद्ध : वह श्राद्ध जिसमें प्रेत-पिंड का पितृ पिंडों में सम्मलेन किया जाता है, उसे सपिण्डन श्राद्ध कहा जाता है. 7. गोष्ठी श्राद्ध : सामूहिक रूप से जो श्राद्ध किया जाता है, उसे गोष्ठीश्राद्ध कहते हैं. 8. शुद्धयर्थ श्राद्ध : शुद्धयर्थ श्राद्ध वे हैं, जो शुद्धि के उद्देश्य से किये जाते हैं. 9. कर्मांग श्राद्ध : कर्मांग श्राद्ध वे हैं, जो षोडश संस्कारों में किये जाते हैं. 10. दैविक श्राद्ध : देवताओं की संतुष्टि की संतुष्टि के उद्देश्य से जो श्राद्ध किये जाते हैं, उन्हें दैविक श्राद्ध कहते हैं. 11. यात्रार्थ श्राद्ध : यात्रा के उद्देश्य से जो श्राद्ध किया जाता है, उसे यात्रार्थ कहते हैं. 12. पुष्टयर्थ श्राद्ध : शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक पुष्टता के लिये जो श्राद्ध किये जाते हैं, उन्हें पुष्टयर्थ श्राद्ध कहते हैं. 13. श्रौत-स्मार्त श्राद्ध : पिण्डपितृयाग को श्रौत श्राद्ध कहते हैं, जबकि एकोदिष्ट, पावर्ण, यात्रार्थ, कर्मांग आदि श्राद्ध स्मार्त श्राद्ध कहलाते हैं. कब किया जाता है श्राद्ध? श्राद्ध की महत्ता को स्पष्ट करने से पूर्व यह जानना भी आवश्यक है की श्राद्ध कब किया जाता है. इस संबंध में शास्त्रों में श्राद्ध किये जाने के निम्नलिखित अवसर बताये गए हैं - 1. भाद्रपद कृष्ण पक्ष के पितृपक्ष के 16 दिन. 2. वर्ष की 12 अमावास्याएं तथा अधिक मास की अमावस्या. 3. वर्ष की 12 संक्रांतियां. 4. वर्ष में 4 युगादी तिथियाँ. 5. वर्ष में 14 मन्वादी तिथियाँ. 6. वर्ष में 12 वैध्रति योग 7. वर्ष में 12 व्यतिपात योग. 8. पांच अष्टका. 9. पांच अन्वष्टका 10. पांच पूर्वेघु. 11. तीन नक्षत्र: रोहिणी, आर्द्रा, मघा. 12. एक कारण : विष्टि. 13. दो तिथियाँ : अष्टमी और सप्तमी. 14. ग्रहण : सूर्य एवं चन्द्र ग्रहण. 15. मृत्यु या क्षय तिथि. क्यों आवश्यक है श्राद्ध? श्राद्धकर्म क्यों आवश्यक है, इस संबंध में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं - 1. श्राद्ध पितृ ऋण से मुक्ति का माध्यम है. 2. श्राद्ध पितरों की संतुष्टि के लिये आवश्यक है. 3. महर्षि सुमन्तु के अनुसार श्राद्ध करने से श्राद्धकर्ता का कल्याण होता है. 4. मार्कंडेय पुराण के अनुसार श्राद्ध से संतुष्ट होकर पितर श्राद्धकर्ता को दीर्घायु, संतति, धन, विघ्या, सभी प्रकार के सुख और मरणोपरांत स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करते हैं. 5. अत्री संहिता के अनुसार श्राद्धकर्ता परमगति को प्राप्त होता है. 6. यदि श्राद्ध नहीं किया जाता है, तो पितरों को बड़ा ही दुःख होता है. 7. ब्रह्मपुराण में उल्लेख है की यदि श्राद्ध नहीं किया जाता है, तो पितर श्राद्ध करने वाले व्यक्ति को शाप देते हैं और उसका रक्त चूसते हैं. शाप के कारण वह वंशहीन हो जाता अर्थात वह पुत्र रहित हो जाता है, उसे जीवनभर कष्ट झेलना पड़ता है, घर में बीमारी बनी रहती है. श्राद्ध-कर्म शास्त्रोक्त विधि से ही करें पित्रु कार्य कारतीक या चैत्र मास मे भी कीया जा सकता है 💐💐💐 💐💐💐 मातृदेवो भव पितृदेवो भव पितरो की शांति के लिए क्या करे? ✍🏻समाधान- पितरो की शांति हेतु त्रिपिण्डी श्राद्ध, नारायण बलि कर्म, महामृत्युंजय मंत्र जाप और श्रीमद् भागवत कथा कराये। (1) त्रिपिण्डी श्राद्ध- यदि किसी मृतात्मा की लगातार तीन वर्षों तक श्राद्ध नहीं किया जाए तो वह जीवात्मा प्रेत योनि में चली जाती है। ऐसी प्रेतात्माओं की शांति के लिए त्रिपिण्डी श्राद्ध कराया जाता है। (2)नारायण बलि कर्म- यदि किसी जातक की कुण्डली में पित्रृदोष है एवं परिवार मे किसी की असामयिक या अकाल मृत्यु हुई हो तो वह जीवात्मा प्रेत योनी में चला जाता है एवं परिवार में अशांति का वातावरण उत्पन्न करता है। ऐसी स्थिति में नारायण बलि कर्म कराना आवश्यक हो जाता है। (3) मृतात्मा की शांति के लिए भी महामृत्युंजय मंत्र जाप करवाया जा सकता है। इसके प्रभाव से पूर्व जन्मों के सभी पाप नष्ट हो जाते है।M (4)पितरो की आत्मा की शांति के bh लिए श्रीमद्भागवत का पाठ कराना चाहिए।श्रीमद् भागवत कथा सुनने से प्रेत योनि से मुक्ति हो जाती है।और परिवार के लिए सुख शांति प्राप्त होती है। इस बार 16 नहीं 15 दिन ही हैं श्राद्ध ================== सोलह श्राद्ध का संयोग इस वर्ष 15 दिन का होगा! हर साल पितरों की शांति और तर्पण करने के लिए भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक के काल में किया जाता है। पूर्वजों का तपर्ण करना हिन्दू धर्म में बहुत ही पुण्य का काम माना जाता है। पुण्य के साथ तर्पण हिन्दू धर्म में बहुत अहम काम माना जाता है। हिन्दू मान्यता के हिसाब से किसी भी व्यक्ति की मृत्यु के बाद श्राद्ध करना बेहद जरूरी होता है। मान्यत है कि अगर मृत मनुष्य का विधिपूर्वक श्राद्ध और तर्पण ना हो पाए तो उसे इस लोक (पृथ्वी लोक) से मुक्ति नहीं मिलती और वह भूत बनकर इस पृथ्वी पर भटकता रहता है, जिसे अन्य शब्दों में कहते हैं कि मोक्ष प्राप्त नहीं होता। तर्पण का महत्व पुराणों में एक पुराण है ब्रह्म वैवर्त, जिसके अनुसार भगवान को खुश करने से पहले मनुष्य को अपने पितरों यानि पूर्वजों को प्रसन्न करना अति आवश्यक है। ज्योतिष के अनुसार भी कुंडली में पितृ दोष पाया जाता है। जिसे अब तक का सबसे बड़ा दोष माना गया है। यह दोष यदि एकबार लग जाए तो पीढ़ी दर पीढ़ी कुंडली में दिखता है। जब तक की कोई इसकी शांति न करवाए। हर साल पितरों की शांति और तर्पण करने के लिए भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक के काल में किया जाता है। इसे ही पितृ पक्ष श्राद्ध कहते हैं। ऐसा कहा जाता है कि इन पितृ पक्ष के दिनों में कुछ समय के लिए यमराज पितरों को आजाद कर देते हैं ताकि वह अपने परिजनों से श्राद्ध ग्रहण कर सकें।

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