जाने ब्राह्मण क्या है ।
- Astro Mahesh Jyotishacharya Guru ji
- Sep 8, 2017
- 13 min read
ब्राह्मण को जानना चाहता है?मैं तुझे बताता हूँ कि ब्राह्मण कौन है। ब्राह्मण वह है जो वशिष्ठ के रूप में केवल अपना एक दंड जमीन में गाड़ देता है,जिससे विश्वामित्र के समस्त अस्त्र शस्त्र चूर हो जाते हैं और विश्वामित्र लज्जित होकर कह पड़ते हैं- धिक बलं क्षत्रिय बलं,ब्रह्म तेजो बलं बलं। एकेन ब्रह्म दण्डेन,सर्वस्त्राणि हतानि में। (क्षत्रिय के बल को धिक्कार है।ब्राह्मण का तेज ही असली बल है।ब्राह्मण वशिष्ठ का एक ब्रह्म दंड मेरे समस्त अस्त्र शस्त्र को निर्वीर्य कर दिया) ब्राह्मण वह है जो परशुराम के रूप में एक बार नहीं,21 बार आततायी राजाओं का संहार करता है।जिसके लिए भगवान राम भी कहते हैं- विप्र वंश करि यह प्रभुताई। अभय होहुँ जो तुम्हहिं डेराई। जिनके विषय मे यह श्लोक प्रसिद्ध है- अग्रतः चतुरो वेदाः पृष्ठतः सशरं धनुः । इदं ब्राह्मं इदं क्षात्रं शापादपि शरादपि ।। चार वेद मौखिक हैं अर्थात् पूर्ण ज्ञान है एवं पीठपर धनुष-बाण है, अर्थात् शौर्य है,अर्थात् यहां ब्राह्मतेज एवं क्षात्रतेज, दोनों हैं । जो कोई इनका विरोध करेगा, उसे शाप देकर अथवा बाणसे परशुराम पराजित करेंगे । ऐसी उनकी विशेषता है । ब्राह्मण वह है,जो दधीचि के रूप में अपनी हड्डियों से बज्र बनवाकर,वृत्तासुर का अंत कराता है।जब तक धरती है,इतिहास मिट नहीं सकता- ठीक है, ये प्राण क्षण-भंगुर हमारे, किन्तु फिर भी हैं सभी को प्राण प्यारे। मृत्यु का भय तो सभी को दाहता है, तुम बताओ कौन मरना चाहता है? किन्तु घबराओ नहीं, मैं प्राण दूँगा, मृत्यु-भय से तर्क का आश्रय न लूँगा। स्वार्थ है इसमें तुम्हारा जानता हूँ, किन्तु यह परमार्थ भी है, मानता हूँ। यों तुम्हें लज्जित किया, मत मान लेना, भाव हैं सच्चे हृदय के जान लेना। सोचता हूँ जन्म का उद्देश्य क्या है? किस लिए पैदा हुआ हूँ क्या किया है? बहुत वर्षों साधना की, ज्ञान पाया, किन्तु लगता व्यर्थ ही जीवन गँवाया। आज अपने पास देखी मृत्यु छाया, और सच्चे ज्ञान का आभास पाया। विश्व, वैभव, मान-यश ले क्या करूंगा? सब मिलेगा किन्तु फिर भी तो मरूंगा। इस लिए बलिदान तो क्या जानता हूँ, मैं इसे कर्त्तव्य-पालन मानता हूँ। आज तुमसे माँगता क्या मान मेरा? मृत्यु ही जब बन गई वरदान मेरा। मैं मरूंगा ताकि बाकी लोग जीवें, फिर न दानव मानवों का रक्त पीवें। क्या पता है, मैं कहाँ को जा रहा हूँ, किन्तु अन्तिम शाँति सचमुच पा रहा हूँ। लोक के हित को रहा है प्राण-अर्पण, आज मेरा हो गया है धन्य जीवन। और को सुख दे रहा हूँ कष्ट सहकर, हो गए ऋषि शान्त इतनी बात कहकर। ब्राह्मण वह है,जो चाणक्य के रूप में,अपना अपमान होने पर धनानन्द को चुनौती देकर कहता है कि अब यह शिखा तभी बँधेगी जब तुम्हारा नाश कर दूंगा और ऐसा करके ही शिखा बाँधता है। ब्राह्मण वह है जो अर्थ शास्त्र की ऐसी पुस्तक देता है,जो आज तक अद्वितीय है। ब्राह्मण वह है जो पुष्य मित्र शुंग के रूप में मौर्य वंश के अंतिम सम्राट बृहद्रथ को ,उठाता है तलवार और स्वाहा कर देता है।भारत को बौद्ध होने से बचा लेता है।यवन आक्रमण की ऐसी की तैसी कर देता है। ब्राह्मण वह है जो मण्डन मिश्र के रूप में जन्म लिया और जिसके घर पर तोता भी संस्कृत में दर्शन पर वाद विवाद करते थे।अगर पता नहीं है तो यह श्लोक पढो, जो आदि शंकर के मण्डन मिश्र के घर का पता पूछने पर उनकी दासियों ने कहा था- स्वतः प्रमाणं परतः प्रमाणं, कीरांगना यत्र गिरा गिरंति। द्वारस्थ नीण अंतर संनिरुद्धा, जानीहि तंमण्डन पंडितौकः। (जिस घर के दरवाजे पर पिंजरे में बन्द तोता भी वेद के स्वतः प्रमाण या परतः प्रमाण की चर्चा कर रहा हो,उसे ही मण्डन मिश्र का घर समझना।) ब्राह्मण वह है जो शंकराचार्य के रूप में 32 वर्ष की उम्र तक वह सब कर जाता है,जिसकी कल्पना भी सम्भव नहीं है।अद्वैत वेदान्त,दर्शन का शिरोमणि। ब्राह्मण वह है जो अस्त व्यस्त अनियंत्रित भाषा को व्याकरण बद्ध कर पाणिनि के रूप में अष्टाध्यायी लिख देता है। ब्राह्मण वह है,जो पतंजलि के रूप में अश्वमेध यज्ञ कराता है और महाभाष्य लिख देता है। ब्राह्मण वह है जो तुलसी के रूप में ऐसा महाकाव्य श्री राम चरित मानस, लिख देता है,जो जन जन की गीता बन जाती है। और बताऊँ ब्राह्मण कौन है? ब्राह्मण है वह नारायण,जिसने महाराणा प्रताप व उनके भाई शक्ति सिंह के मध्य युद्ध को रोकने के लिए,उनके समक्ष चाकू से अपनी ही हत्या कर दिया था।पता नहीं है तो श्याम नारायन पांडेय का महाकाव्य हल्दी घाटी,प्रथम सर्ग की ये पंक्तियां पढ़ो- उठा लिया विकराल छुरा सीने में मारा ब्राह्मण ने। उन दोनों के बीच बहा दी शोणित–धारा ब्राह्मण ने।। वन का तन रँग दिया रूधिर से दिखा दिया¸ है त्याग यही। निज स्वामी के प्राणों की रक्षा का है अनुराग यही॥ ब्राह्मण था वह ब्राह्मण था¸ हित राजवंश का सदा किया। निज स्वामी का नमक हृदय का रक्त बहाकर अदा किया॥ ब्राह्मण वह है जो श्याम नारायण पांडेय के रूप में जन्म लेकर,हल्दी घाटी,जौहर,जैसे हिंदी के महाकाव्य लिख डाले, जो अपनी दार्शनिकता व वीर रस के कारण अमर है।थोड़ा परिश्रम करो और जौहर के मंगलाचरण की प्रारंभिक पंक्तियाँ ही पढ़ लो,बुद्धि ठीक हो जाएगी- गगन के उस पार क्या, पाताल के इस पार क्या है? क्या क्षितिज के पार? जग जिस पर थमा आधार क्या है? दीप तारों के जलाकर कौन नित करता दिवाली? चाँद - सूरज घूम किसकी आरती करते निराली? ब्राह्मण वह है जो सूर्य कांत त्रिपाठी के रूप में अवतरित हुआ और अपने साहित्य के निरालेपन,जीवन के अक्खड़पन से निराला बन गया।अमर है निराला की राम की शक्ति पूजा- बोले विश्वस्त कण्ठ से जाम्बवान-"रघुवर, विचलित होने का नहीं देखता मैं कारण, हे पुरुषसिंह, तुम भी यह शक्ति करो धारण, आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर, तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर। रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सकता त्रस्त तो निश्चय तुम हो सिद्ध करोगे उसे ध्वस्त, शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन। धिक् जीवन को जो पाता ही आया विरोध, धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध जानकी! हाय उद्धार प्रिया का हो न सका, वह एक और मन रहा राम का जो न थका, जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय, कर गया भेद वह मायावरण प्राप्त कर जय, ब्राह्मण को समझना चाहते हो तो अटल विहारी वाजपेयी के धाराप्रवाह भाषण को सुनिए।भारत रग रग में भर जाएगा।यह भी न हो सके तो सिर्फ ये पंक्तियां पढ़ लीजिये जनाब- भारत जमीन का टुकड़ा नहीं, जीता जागता राष्ट्रपुरुष है। हिमालय मस्तक है, कश्मीर किरीट है, पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं। पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघायें हैं। कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है। यह चन्दन की भूमि है, अभिनन्दन की भूमि है, यह तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है। इसका कंकर-कंकर शंकर है, इसका बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है। हम जियेंगे तो इसके लिये मरेंगे तो इसके लिये। आग्नेय परीक्षा की इस घड़ी में— आइए, अर्जुन की तरह उद्घोष करें : ‘‘न दैन्यं न पलायनम्।’ ब्राह्मण ने तो भगवान को भी अश्रु बहाने को बाध्य कर दिया था।याद है गरीब ब्राह्मण सुदामा कृष्ण की मित्रता। महाकवि नरोत्तम दास के शब्दों में- ऐसे बेहाल बेवाइन सों पग, कंटक-जाल लगे पुनि जोये। हाय! महादुख पायो सखा तुम, आये इतै न किते दिन खोये॥ देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करिके करुनानिधि रोये। पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल सौं पग धोये। ब्राह्मण प्रज्ञा चक्षु होता है,प्रज्ञाचक्षु।बिना आंख के असम्भव को संभव बना देता है।मूर्खों को यह समझ मे नहीं आएगा।जाकर वर्तमान में स्वामी राम भद्राचार्य अर्थात गिरिधर मिश्र जी को चित्र कूट में देखिए।02 माह के थे,जब आंख की रोशनी चली गयी।अब तक 100 से ज्यादा ग्रंथों के लेखक,22 भाषाओं के ज्ञाता,संस्कृत में दो महाकाव्य-श्री भार्गव राघवीयम और गीत रामायनम। हिंदी में दो महाकाव्य-अष्टावक्र और अरुंधती। प्रकृति के सुकुमार कवि,श्री सुमित्रा नन्दन पन्त जी को क्यों विस्मृत करें।कुछ तो है ब्राह्मण रक्त में जरूर।देखिए पन्त जी की उदार विश्व कल्याण की वाणी- तप रे, मधुर मन! विश्व-वेदना में तप प्रतिपल, जग-जीवन की ज्वाला में गल, बन अकलुष, उज्जवल औ\' कोमल तप रे, विधुर-विधुर मन! अपने सजल-स्वर्ण से पावन रच जीवन की पूर्ति पूर्णतम स्थापित कर जग अपनापन, ढल रे, ढल आतुर मन! तेरी मधुर मुक्ति ही बन्धन, गंध-हीन तू गंध-युक्त बन, निज अरूप में भर स्वरूप, मन मूर्तिमान बन निर्धन! गल रे, गल निष्ठुर मन। ब्राह्मण कभी भी निम्न चिंतन करता ही नहीं है।वह हमेशा सत्य,न्याय,धर्म,सदाचार,देश प्रेम की बात करता है।राम नरेश त्रिपाठी जी की इस कविता से यह बात प्रमाणित हो जाती है- हे प्रभु आनंद-दाता हे प्रभु आनंद-दाता ज्ञान हमको दीजिये, शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिए, लीजिये हमको शरण में, हम सदाचारी बनें, ब्रह्मचारी धर्म-रक्षक वीर व्रत धारी बनें, निंदा किसी की हम किसी से भूल कर भी न करें, ईर्ष्या कभी भी हम किसी से भूल कर भी न करें, सत्य बोलें, झूठ त्यागें, मेल आपस में करें, दिव्या जीवन हो हमारा, यश तेरा गाया करें, जाये हमारी आयु हे प्रभु लोक के उपकार में, हाथ डालें हम कभी न भूल कर अपकार में, कीजिए हम पर कृपा ऐसी हे परमात्मा, मोह मद मत्सर रहित होवे हमारी आत्मा, प्रेम से हम गुरु जनों की नित्य ही सेवा करें, प्रेम से हम संस्कृति की नित्य ही सेवा करें, योग विद्या ब्रह्म विद्या हो अधिक प्यारी हमें, ब्रह्म निष्ठा प्राप्त कर के सर्व हितकारी बनें, हे प्रभु आनंद-दाता ज्ञान हमको दीजिये। ब्राह्मण की तो इतनी लंबी श्रृंखला है कि ग्रन्थ लिखा जा सकता है।आशा,उत्साह,त्याग,गति,यही सब तो ब्राह्मण की पूंजी है।देखिए बाल कृष्ण शर्मा नवीन की यह रचना- कौन कहता है की तुमको खा सकेगा काल ? अरे? तुम हो काल के भी काल अति विकराल काल का तब धनुष, दिक् की है धनुष की डोर; धनु-विकंपन से सिहरती सृजन-नाश-हिलोर! तुम प्रबल दिक्-काल-धनु-धारी सुधन्वा वीर; तुम चलाते हो सदा चिर चेतना के तीर! क्या बिगाड़ेगा तुम्हारा, यह क्षणिक आतंक? क्या समझते हो की होगे नष्ट तुम अकलंक? यह निपट आतंक भी है भीति-ओत-प्रोत! और तुम? तुम हो चिरंतन अभयता के स्त्रोत!! एक क्षण को भी न सोचो की तुम होगे नष्ट, तुम अनश्वर हो! तुम्हारा भाग्य है सुस्पष्ट! चिर विजय दासी तुम्हारी, तुम जयी उद्बुद्ध, क्यों बनो हट आश तुम, लख मार्ग निज अवरुद्ध? फूँक से तुमने उड़ाई भूधरों की पाँत; और तुमने खींच फेंके काल के भी दाँत; क्या करेगा यह बिचारा तनिक सा अवरोध? जानता है जग तुम्हारा है भयंकर क्रोध! जब करोगे क्रोध तुम, तब आएगा भूडोल, काँप उठेंगे सभी भूगोल और खगोल, नाश की लपटें उठेंगी गगन-मंडल बीच; भस्म होंगी ये असामाजिक प्रथाएँ नीच! औ पधारेगा सृजन कर अग्नि से सुस्नान; मत बनो गत आश! तुम हो चिर अनंत महान! राम विलास शर्मा का नाम तो सबने सुना ही है।ब्राह्मण कुल मणि शर्मा जी ने लगभग 100 पुस्तकें लिखा।निराला को प्रसिद्धि दिलाई।अब कोई मूर्ख इन्हें न पढ़े, तो किसका दोष?इनकी एक ही रचना से इनके व्यक्तित्व का दर्शन हो जाता है- राम विलास शर्मा की प्रसिद्ध रचना-कवि। वह सहज विलम्बित मंथर गति जिसको निहार गजराज लाज से राह छोड़ दे एक बार, काले लहराते बाल देव-सा तन विशाल, आर्यों का गर्वोन्नत प्रशस्त, अविनीत भाल, झंकृत करती थी जिसकी वीणा में अमोल, शारदा सरस वीणा के सार्थक सधे बोल,- कुछ काम न आया वह कवित्व, आर्यत्व आज, संध्या की वेला शिथिल हो गए सभी साज। पथ में अब वन्य जन्तुओं का रोदन कराल। एकाकीपन के साथी हैं केवल श्रृगाल। अब कहाँ यक्ष से कवि-कुल-गुरु का ठाट-बाट ? अर्पित है कवि चरणों में किसका राजपाट ? उन स्वर्ण-खचित प्रासादों में किसका विलास ? कवि के अन्त:पुर में किस श्यामा का निवास? पैरों में कठिन बिवाई कटती नहीं डगर, आँखों में आँसू, दुख से खुलते नहीं अधर ! खो गया कहीं सूने नभ में वह अरुण राग, धूसर संध्या में कवि उदास है वीतराग ! अब वन्य-जन्तुओं का पथ में रोदन कराल । एकाकीपन के साथी हैं केवल श्रृगाल । अज्ञान-निशा का बीत चुका है अंधकार, खिल उठा गगन में अरुण-ज्योति का सहस्नार । किरणों ने नभ में जीवन के लिख दिए लेख, गाते हैं वन के विहग-ज्योति का गीत एक । फिर क्यों पथ में संध्या की छाया उदास ? क्यों सहस्नार का मुरझाया नभ में प्रकाश ? किरणों ने पहनाया था जिसको मुकुट एक, माथे पर वहीं लिखे हैं दुख के अमिट लेख। अब वन्य जन्तुओं का पथ में रोदन कराल । एकाकीपन के साथी हैं, केवल श्रृगाल। इन वन्य-जन्तुओं से मनुष्य फिर भी महान्, तू क्षुद्र-मरण से जीवन को ही श्रेष्ठ मान। ‘रावण-महिमा-श्यामा-विभावरी-अन्धकार’- छँट गया तीक्ष्ण-बाणों से वह भी तम अपार। अब बीती बहुत रही थोड़ी, मत हो निराश छाया-सी संध्या का यद्यपि धूसर प्रकाश। उस वज्र-हृदय से फिर भी तू साहस बटोर, कर दिए विफल जिसने प्रहार विधि के कठोर। क्या कर लेगा मानव का यह रोदन कराल ? रोने दे यदि रोते हैं वन-पथ में श्रृगाल। कट गई डगर जीवन की, थोड़ी रही और, इन वन में कुश-कंटक, सोने को नहीं ठौर। क्षत चरण न विचलित हों, मुँह से निकले न आह, थक कर मत गिर पडऩा, ओ साथी बीच राह। यह कहे न कोई-जीर्ण हो गया जब शरीर, विचलित हो गया हृदय भी पीड़ा अधीर। पथ में उन अमिट रक्त-चिह्नों की रहे शान, मर मिटने को आते हैं पीछे नौजवान। इन सब में जहाँ अशुभ ये रोते हैं श्रृगाल। निर्मित होगी जन-सत्ता की नगरी विशाल। एक और ब्राह्मण,श्री धर पाठक,क्या अनुभूति है,क्या ज्ञान है,क्या शब्द है।एक बात तो माननी ही होगी कि ब्राह्मण हमेशा उदात्त भाव प्रेमी ही होता है,इसी लिए आजकल लोग इससे जलते भी हैं।देखिए पाठक जी की रचना- भारत हमारा कैसा सुंदर सुहा रहा है शुचि भाल पै हिमाचल, चरणों पै सिंधु-अंचल उर पर विशाल-सरिता-सित-हीर-हार-चंचल मणि-बद्धनील-नभ का विस्तीर्ण-पट अचंचल सारा सुदृश्य-वैभव मन को लुभा रहा है भारत हमारा कैसा सुंदर सुहा रहा है हे वंदनीय भारत, अभिनंदनीय भारत हे न्याय-बंधु, निर्भय, निर्बंधनीय भारत मम प्रेम-पाणि-पल्लव-अवलंबनीय भारत मेरा ममत्व सारा तुझमें समा रहा है भारत हमारा कैसा सुंदर सुहा रहा है श्री धर पाठक,हिन्द महिमा ।जय, जयति–जयति प्राचीन हिंद। जय नगर, ग्राम अभिराम हिंद । जय, जयति-जयति सुख-धाम हिंद । जय, सरसिज-मधुकर निकट हिंद जय जयति हिमालय-शिखर-हिंद जय जयति विंध्य-कन्दरा हिंद जय मलयज-मेरु-मंदरा हिंद। जय शैल-सुता सुरसरी हिंद जय यमुना-गोदावरी हिंद जय जयति सदा स्वाधीन हिंद जय, जयति–जयति प्राचीन हिंद। ब्राह्मण वह है जो गाय का मांस नहीं खाता है,बल्कि इसे मात्र मुंह से लगाने का आदेश देने पर,मंगल पांडेय के रूप में, तत्काल अपने अधिकारी को गोली मार देता है और 1857 की क्रांति का नायक बन जाता है।मरे हुओं में प्राण फूंक देता है। ब्राह्मण वह है जो बंकिम चन्द्र चटर्जी के रूप में धरती पर आता है और गुलामी की जंजीरों से खिन्न होकर,वेद के पृथ्वी सूक्त का नया संस्करण,वन्दे मातरम के रूप में देकर क्रांति का नायक बन जाता है।देखिए आनन्द मठ के सन्यासी स्वामी भवानन्द का क्रांति गीत- वंदे मातरम् । सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम् शस्यश्यामलां मातरम् । वन्दे मातरम। शुभ्रज्योत्स्नापुलकितयामिनीं, फुल्लकुसुमितद्रुमदलशोभिनीं, सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीं, सुखदां वरदां मातरम् ॥ वंदे मातरम् । कोटि-कोटि-कण्ठ-कल-कल-निनाद-कराले, कोटि-कोटि-भुजैधृत-खरकरवाले, अबला केन मा एत बले । बहुबलधारिणीं नमामि तारिणीं रिपुदलवारिणीं मातरम् ॥ वंदे मातरम् । तुमि विद्या, तुमि धर्म, तुमि हृदि, तुमि मर्म, त्वं हि प्राणाः शरीरे, बाहुते तुमि मा शक्ति, हृदये तुमि मा भक्ति, तोमारई प्रतिमा गडि मन्दिरे-मन्दिरे मातरम् ॥ वंदे मातरम् । त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी, कमला कमलदलविहारिणी, वाणी विद्यादायिनी, नमामि त्वाम् कमलां अमलां अतुलां सुजलां सुफलां मातरम् ॥ वंदे मातरम् । श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषितां धरणीं भरणीं मातरम् ॥ वंदे मातरम् । और बताऊँ ब्राह्मण क्या होता है? ब्राह्मण होता है बाजीराव पेशवा,जो शिखा धारण करता है,चंदन लगाता है और विशाल मुस्लिम साम्राज्य को अपनी लपलपाती तलवार से काट डालता है।जीवन मे लगभग 41 युद्ध लड़ता है और कोई भी हारता नहीं है। विषम परिस्थितियों में भी कहता है- चीते की चाल, बाज की नजर और बाजीराव की तलवार पर संदेह नहीं करते. अरे,मैं तो कुछ भूल ही गया था।ब्राह्मण होता है प्रचेता ऋषि का पुत्र महर्षि वाल्मीकि,जो क्रौंच पक्षी की हत्या से ऐसा विक्षुब्ध होता है कि संस्कृत का पहला महाकाव्य रामायण लिख देता है और ऐसी बुद्धि का प्रयोग करता है कि आज तक विद्वान इसी ग्रन्थ से रक्त,अस्थि,मज़्ज़ा प्राप्त करते हैं। ब्राह्मण होता है बाल गंगाधर तिलक,जो उस समय निडर हो कर उद्घोष करता है-स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और हम इसे लेकर रहेंगे,जब शेष लोग अंग्रेजों के समक्ष दंडवत कर रहे होते हैं।वेलेंटाइन शिरोल ने जिसे कहा था-फादर आफ इंडियन अनरेस्ट। ब्राह्मण होती है झांसी की रानी लक्ष्मी बाई,जिसके सन 1857 की गाथा को याद कर सुभद्रा कुमारी चौहान को लिखना पड़ जाता है- चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी। खूब लड़ी मर्दानी वह तो, झांसी वाली रानी थी। अरे रुको,रुको,अभी जाना मत।अभी कुछ और लिखने वाला हूँ।ब्राह्मण क्या है,इसे वीर सावरकर के इस कथन में खोजो- काल स्वयं मुझसे डरा है, मैं काल से नहीं। काले पानी का कालकूट पीकर, काल से कराल स्तंभों को झकझोर कर, मैं बार बार लौट आया हूँ, और फिर भी मैं जीवित हूँ। हारी मृत्यु है,मैं नहीं। अब इस लेख को और नहीं बढ़ाना चाहता।इसका समापन अब मैं अपनी ही तीन रचनाओं से करता हूँ।क्यों न करूँ?आखिर में भी तो ब्राह्मण हूँ और मुझे ब्राह्मण होने पर गर्व है। कुहासा क्या कर लेगा? तुम चलो सूर्य की चाल, कुहासा क्या कर लेगा? पल पल यह पथ निर्मित होगा, गगन लोक कुहरा विचरेगा, सूरज के इस तप के आगे, घना अँधेरा नहीं टिकेगा। जैसे कल रण छोड़ गया था, वैसे आज पराजित होगा। हे मानव!बस तन्मय होकर, करते रहो प्रहार, कुहासा क्या कर लेगा? तुम चलो सूर्य की चाल, कुहासा क्या कर लेगा? उसमे कण कण तिमिर भरा है, दरवाजे तम का पहरा है, दीपों की लड़ियाँ बिखरी हैं, बर्फीली रातें गहरी हैं, सभी दीप मिल महाज्वाल बन, करो अँधेरा पार, कुहासा क्या कर लेगा? तुम चलो सूर्य की चाल, कुहासा क्या कर लेगा? लहरें आती हैं आने दे, सागर आज मचल जाने दे, आसमान यह साक्षी होगा, सच में तू इतिहास रचेगा, श्वासों की गति रोक रोक कर, साहिल-नाव,संभाल, कुहासा क्या कर लेगा? तुम चलो सूर्य की चाल, कुहासा क्या कर लेगा? राज नाथ तिवारी। उस देश का यारों क्या होगा? जिस देश में नाटक होते हों, पाखंडी झूठे रोते हों, छल,छद्म,का स्वागत होता हो, स्वार्थी ही काँटा बोता हो, अधिकारों का पागलपन हो, कर्तव्य-शून्य-अपनापन हो, अंतर्मन में हो घनी रात, बाहर दर्शित वंचक प्रकाश, सब नाम राम का लेते हों, रावण की मदिरा पीते हों, वाणी से शुभ वाचाली हों, कर्मों से कुटिल कुचाली हों, उस देश का यारों क्या होगा? जिस देश में गीता लज्जित हो, दासों का कैपिटल सज्जित हो, बस दलित ही मूल निवासी हों, सावर्णिक हुए प्रवासी हों, मति मन्द सुशोभित होते हों, मति मान कुपोषित होते हों, ग्रंथों का मर्दन होता हो, धर्मों का क्रंदन होता हो, निज सैन्य बनाये जाते हों, घर आग लगाए जाते हों, आसुरी शक्ति की माया हो, न हृदय में कोई दाया हो, उस देश का यारों क्या होगा? जिस देश में ब्राह्मण सहमा हो, नतमस्तक उसकी गरिमा हो, नामों,गोत्रों,में,टूटा हो, बस बात बात में रूठा हो, अज्ञानी और विलासी हो, कर्मों से सत्यानाशी हो, वैदिक धर्मों को भूला हो, स्वार्थों में आग बबूला हो, न पढ़ता हो,न लिखता हो, ज्ञानी अपने को कहता हो, उच्चादर्शों में जीता हो, प्याला में मदिरा पीता हो, उस देश का यारों क्या होगा? जिस देश में राम विवादित हों, अपने घर से निष्कासित हों, कोई भी नर आ जाता हो, यह देश गुलाम बनाता हो, मंदिर को तोड़ा जाता हो, निज धर्म को छोड़ा जाता हो, हमलावर महिमामण्डित हों, मिट्टी के वीर विखंडित हों, इतिहास कलंकित होता हो, अन्याय प्रसंसित होता हो, भारत को मूरख कहते हों, योरप,विद्वान समझते हैं, उस देश का यारों क्या होगा? पंडित राज नाथ तिवारी। पश्य!पश्य!नटराजःनृत्यति। संस्कृत वाङ्मय विमला सरिता, प्रवहति भारत देशे। बहु अवरोधम,विपुल विरोधम, जीवति यद्यपि क्लेशे। मार्गे पापी रिपु संतापी, अधुना इयं अभंगा। पावन गंगा यमुना धारा, शीतल तरल तरंगा। अस्मिन कवि भवभूति कारुणिक, पूंजीभूतं नीरं। रामः सीता यादे विलपति, दहति समस्त शरीरं। वाणभट्ट कल्लोल प्रचंडा, वाणी धावति वेगा। अचल भूमि जन मंगलकारी, शौम्या दिव्या गंगा। रिक यजु साम अथर्व समाहित, परम पवित्रे नीरे। ऋषि गण मंगल गीतं गायन, संस्कृत तटिनी तीरे। आरण्यक उपनिषद मनोहर, हृदय हारिणी शोभा। दृष्ट्वा मधुरा हरीतिमा खलु, कस्य हृदय न लोभा। भीष्म युधिष्ठिर विदुर प्रभृतयः, निवसति विमल विचारे। पांचजन्यधारी स्वर सलिला, कुत्रास्मिन संसारे? मर्यादा पुरुषोत्तम जीवन, रामायण उपजिव्या। वर्षति नीरद जलकण झम झम, भवति वारिणी नव्या। पश्य!पश्य!,नटराजः नृत्यति, नव पंचा उद्घोषति। पाणिनि ऋषि एकाग्री भूत्वा, अष्टाध्यायी पोषति। मूर्ख अतीते अति भयभीते, इह काले अपि पाहन। उत्तिष्ठत!जाग्रत!हे भू सुर! कुरु संस्कृतावगाहन।

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